शिक्षा की बेहतरी के
लिए नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार
करने एवम् राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2016 बनाने के लिए मानव
संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 31 अक्टूबर 2015 को एक पाँच
सदस्यीय समिति का गठन किया
गया. इस समिति की अध्यक्षता अवकाश
प्राप्त कैबिनेट सचिव टी. एस. आर. सुब्रमनयन ने की. इस
समिति ने 30 अप्रैल 2016 को एक रपट
अपनी सिफारिशों के साथ मंत्रालय
को सौंपी. भारत सरकार ने इस रपट
के आधार पर आम जनता
के लिए एक दस्तावेज़ जारी
किया जिसका नाम था " सम इनपुट्स फॉर
ड्राफ्ट नेशनल एजुकेशन पॉलिसी-2016. इस दस्तावेज़ को
यदि हम गौर से
पढ़ें तो इसमें वर्तमान
सरकार की मंशा साफ
नज़र आती है. उदाहरण के लिए यदि
आप इस दस्तावेज़ की
आरम्भिक पृष्टभूमि को पढ़ें तो
पाएँगे कि इस दस्तावेज़
के माध्यम से सरकार यह
संदेश देती है कि हमारी
शिक्षा व्यवस्था विश्व की सर्वश्रेष्ट शिक्षा
व्यवस्थाओं में से एक थी
और विश्व के सर्वश्रेष्ट विश्व
विद्यालय भी हमारे देश
में ही थे. यह
ज़िंगोईज़्म बताता है कि जब
हम शिक्षा के मामले में विश्व
में सर्वश्रेष्ट थे और है
तो हमें फिर नई शिक्षा नीति
बनाने और इस बारे
में सोचने की ज़रूरत ही
क्या है ? सरकार की मंशा को
समझने के लिए एक
और उदाहरण लिया जा सकता है.
मसलन नई शिक्षा नीति
का मसौदा तैयार करने के लिए जो
समिति बनाई गई है, उसमें
एन. सी. ई.आर. टी
के एक पूर्व निदेशक
के अलावा अन्य चार सेवा-निवृत नौकरशाह है. इस समिति में
शिक्षा के बारे में
गहन चिंतन और अनुभव रखने
वाले किसी शिक्षाविद् को शामिल न
किए जाना अपने आप में सरकार की मंशा पर सवाल उठता है ?
इस दस्तावेज़ में
व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास
को लेकर जो चिंता दिखाई
गयी गई है और
भावी ज़रूरत पर ज़ोर दिया
गया है वो 1986 की
शिक्षा नीति में भी दिया गया
था. तो फिर इसमें
नया क्या बताया गया ? अपितु यह दस्तावेज़ सरकार
के एक घोषणा पत्र
की तरह नज़र आता है. इस दस्तावेज़ में
शिक्षा में बदलाव की ज़रूरत क्यों
है और वह किस
तरह की भावी पीढ़ी
का निर्माण करेगी तथा उसके आधार क्या होंगे का ज़िक्र स्पष्ट
रूप से कहीं पढ़ने
को नही मिलता. किस तरह के भावी समाज
की संकल्पना को लेकर हम
शिक्षा का ताना बाना
बुनना चाहते है इसकी झलक
भी इस दस्तावेज़ में
स्पष्ट नज़र नही आती. यह दस्तावेज़ जहाँ
शिक्षा के व्यावसायीकरण को
ठीक नहीं समझता वहीं शिक्षा को 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' की श्रेणी में
डालकर शिक्षा के निजीकरण को
प्रोत्साहन देता है. यह सरकार की
इस मंशा से भी जाहिर
होता है कि सरकार
उच्च शिक्षा के संस्थानों को
अनुदान उनके द्वारा किए गये प्रदर्शन के आधार पर
देगी. अब यह कहीं
भी स्पष्ट नही है कि प्रदर्शन
के आधार क्या होगें ? दस्तावेज़ यह भी कहता
है कि नये उच्च
शैक्षिक संस्थान नहीं खोले जाएगें क्योंकि इन पर सरकार
को अनावश्यक निवेश करना पड़ता है. अब यदि सरकार
नये संस्थान नहीं खोलेगी तो शिक्षा की
माँग को वह कैसे
पूरा करेगी ? दस्तावेज़ में यह भी कहा
गया है कि अलाभकारी
विद्यालयों को पहचान कर विद्यालयों
का विलय किया जाएगा परन्तु दस्तावेज़ हमें कही भी यह नही बताता कि किसी विद्यालय को
लाभकारी या अलाभकारी कहने के आधार क्या होंगे ? इन विद्यालयों को विलय करने पर 'बच्चों
की पहुँच में शिक्षा का क्या होगा ? क्या प्रत्येक बच्चे को उसके घर के नज़दीक या पड़ोस
में शिक्षा सुलभ हो पाएगी ? उक्त सवालों के संदर्भों में यदि हम इस दस्तावेज़ का विश्लेषण
करें तो स्पष्ट है कि सरकार की मंशा शिक्षा को बाजार के हवाले करने की है. सरकार शिक्षा के सार्वजनीकरण के अपने दायित्व से भागना चाहती है.
विद्यालय छोड़ चुके बालक-बालिकाओं के लिए मुक्त
विद्यालयों की अवधारणा का
विस्तार करना सरकार की गंभीरता पर
प्रश्न उठाता है. क्या सरकार ने कभी सोचा
है कि आख़िर विद्यालय
जाने की उम्र में
बच्चे विद्यालय क्यों छोड़ देते हैं ? अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएँ और
विद्यालय चलाकर सरकार समान स्कूल व्यवस्था की संकल्पना को
लागू करने से पहले ही
समाप्त करने का मानस बना चुकी
है. यह इस दस्तावेज़
से स्पष्ट पता चलता है. आज हमारे देश
में जिस तरह से निजी विद्यालयों
के रूप में शिक्षा की दुकानें खुल
रही है और बच्चों-अभिभावकों का शोषण हो
रहा है उससे निजात
दिलाने के बजाय यह
दस्तावेज़ इस सबको प्रोत्साहन
देता दिखाई देता है.
एक और खास
बात यह है कि
आज हमारे समाज को न्याय, समता,
बराबरी, सहिष्णुता जैसे संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने
और विकसित करने वाली शिक्षा नीति की आवश्यकता है
परन्तु यह बहुत गंभीर
और चिंता का विषय है
कि इस दिशा में
यह दस्तावेज़ कोई ठोस पहल करने का विकल्प सुझाता
नज़र नही आता.
No comments:
Post a Comment