Thursday, August 11, 2016

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2016 : कुछ गंभीर सवाल और मुद्दे. नवलकिशोर सोनी


शिक्षा की बेहतरी के लिए नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने एवम् राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2016 बनाने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 31 अक्टूबर 2015 को एक पाँच सदस्यीय समिति का गठन किया गया. इस समिति की अध्यक्षता अवकाश प्राप्त कैबिनेट सचिव टी. एस. आर. सुब्रमनयन ने की. इस समिति ने 30 अप्रैल 2016 को एक रपट अपनी सिफारिशों के साथ मंत्रालय को सौंपी. भारत सरकार ने इस रपट के आधार पर आम जनता के लिए एक दस्तावेज़ जारी किया जिसका नाम था " सम इनपुट्स फॉर ड्राफ्ट नेशनल एजुकेशन पॉलिसी-2016. इस दस्तावेज़ को यदि हम गौर से पढ़ें तो इसमें वर्तमान सरकार की मंशा साफ नज़र आती है. उदाहरण के लिए यदि आप इस दस्तावेज़ की आरम्भिक पृष्टभूमि को पढ़ें तो पाएँगे कि इस दस्तावेज़ के माध्यम से सरकार यह संदेश देती है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था विश्व की सर्वश्रेष्ट शिक्षा व्यवस्थाओं में से एक थी और विश्व के सर्वश्रेष्ट विश्व विद्यालय भी हमारे देश में ही थे. यह ज़िंगोईज़्म बताता है कि जब हम शिक्षा के मामले में  विश्व में सर्वश्रेष्ट थे और है तो हमें फिर नई शिक्षा नीति बनाने और इस बारे में सोचने की ज़रूरत ही क्या है ? सरकार की मंशा को समझने के लिए एक और उदाहरण लिया जा सकता है. मसलन नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने के लिए जो समिति बनाई गई है, उसमें एन. सी. .आर. टी के एक पूर्व निदेशक के अलावा अन्य चार सेवा-निवृत नौकरशाह है. इस समिति में शिक्षा के बारे में गहन चिंतन और अनुभव रखने वाले किसी शिक्षाविद् को शामिल न किए जाना अपने आप में सरकार की मंशा पर सवाल उठता है ?
इस दस्तावेज़ में व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास को लेकर जो चिंता दिखाई गयी गई है और भावी ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है वो 1986 की शिक्षा नीति में भी दिया गया था. तो फिर इसमें नया क्या बताया गया ? अपितु यह दस्तावेज़ सरकार के एक घोषणा पत्र की तरह नज़र आता है. इस दस्तावेज़ में शिक्षा में बदलाव की ज़रूरत क्यों है और वह किस तरह की भावी पीढ़ी का निर्माण करेगी तथा उसके आधार क्या होंगे का ज़िक्र स्पष्ट रूप से कहीं पढ़ने को नही मिलता. किस तरह के भावी समाज की संकल्पना को लेकर हम शिक्षा का ताना बाना बुनना चाहते है इसकी झलक भी इस दस्तावेज़ में स्पष्ट नज़र नही आती. यह दस्तावेज़ जहाँ शिक्षा के व्यावसायीकरण को ठीक नहीं समझता वहीं शिक्षा को 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' की श्रेणी में डालकर शिक्षा के निजीकरण को प्रोत्साहन देता है. यह सरकार की इस मंशा से भी जाहिर होता है कि सरकार उच्च शिक्षा के संस्थानों को अनुदान उनके द्वारा किए गये प्रदर्शन के आधार पर देगी. अब यह कहीं भी स्पष्ट नही है कि प्रदर्शन के आधार क्या होगें ? दस्तावेज़ यह भी कहता है कि नये उच्च शैक्षिक संस्थान नहीं खोले जाएगें क्योंकि इन पर सरकार को अनावश्यक निवेश करना पड़ता है. अब यदि सरकार नये संस्थान नहीं खोलेगी तो शिक्षा की माँग को वह कैसे पूरा करेगी ? दस्तावेज़ में यह भी कहा गया है कि अलाभकारी विद्यालयों को पहचान कर विद्यालयों का विलय किया जाएगा परन्तु दस्तावेज़ हमें कही भी यह नही बताता कि किसी विद्यालय को लाभकारी या अलाभकारी कहने के आधार क्या होंगे ? इन विद्यालयों को विलय करने पर 'बच्चों की पहुँच में शिक्षा का क्या होगा ? क्या प्रत्येक बच्चे को उसके घर के नज़दीक या पड़ोस में शिक्षा सुलभ हो पाएगी ? उक्त सवालों के संदर्भों में यदि हम इस दस्तावेज़ का विश्लेषण करें तो स्पष्ट है कि सरकार की मंशा शिक्षा को बाजार के हवाले करने की है. सरकार  शिक्षा के सार्वजनीकरण के  अपने दायित्व से भागना चाहती है.
विद्यालय छोड़ चुके बालक-बालिकाओं के लिए मुक्त विद्यालयों की अवधारणा का विस्तार करना सरकार की गंभीरता पर प्रश्न उठाता है. क्या सरकार ने कभी सोचा है कि आख़िर विद्यालय जाने की उम्र में बच्चे विद्यालय क्यों छोड़ देते हैं ? अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएँ और विद्यालय चलाकर सरकार समान स्कूल व्यवस्था की संकल्पना को लागू करने से पहले ही समाप्त करने का मानस बना चुकी है. यह इस दस्तावेज़ से स्पष्ट पता चलता है. आज हमारे देश में जिस तरह से निजी विद्यालयों के रूप में शिक्षा की दुकानें खुल रही है और बच्चों-अभिभावकों का शोषण हो रहा है उससे निजात दिलाने के बजाय यह दस्तावेज़ इस सबको प्रोत्साहन देता दिखाई देता है.
एक और खास बात यह है कि आज हमारे समाज को न्याय, समता, बराबरी, सहिष्णुता जैसे संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने और विकसित करने वाली शिक्षा नीति की आवश्यकता है परन्तु यह बहुत गंभीर और चिंता का विषय है कि इस दिशा में यह दस्तावेज़ कोई ठोस पहल करने का विकल्प सुझाता नज़र नही आता.


Thursday, June 23, 2016

पाठ्यक्रम और राजनीतिक दल- नवलकिशोर सोनी

राजस्थान की वर्तमान पाठ्य पुस्तकों को लेकर यों तो अब तक मेरे विद्वान साथियों ने काफ़ी कुछ लिखा  हैकुछ ने जेंडर की दृष्टि से तो कुछ ने वैज्ञानिक और इतिहासिक दृष्टि से. हम सभी यह बात भली-भाँति जानते है कि शिक्षाक्र्म और पाठ्यक्रम  के साथ छेड़खानी करना सभी राजनीतिक दलों का प्रमुख एजेंडा होता है. इस मामले में ना भारतीय जनता पार्टी पीछे है और ना ही कॉंग्रेस और ना ही अन्य वामपंथी दल. आप इस बात का उदाहरण सभी राज्यों और उन राज्यों में मौजूद सरकारों की विचारधारा  के साथ वर्तमान पाठ्यक्रम  को तुलना करके देख सकते हैं.
राज मार्गों, सरकारी भवनों इत्यादि के नामकरण अपनी-अपनी राजनीतिक  विचारधारा के समर्थक या प्रतिपादक व्यक्तियों के नाम पर रखना या बदलना राजनीतिक दलों का बहुत पुराना शगल है.
अब सवाल यह है कि क्या इस सब कार्यकलाप को यह कहकर जायज़ ठहराया जा सकता है कि जो भी दल सत्ता में आएगा वो तो शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम से छेड़खानी करेगा ही. और चूँकी सभी दल एसा करते है तो इसमें हैरानी की बात ही क्या है ?
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि सभी राजनीतिक दल शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम से छेड़खानी करते हैं तो बाकी को भी [ जिनको सत्ता में आने का मौका मिला है यह हक़ होना चाहिए] और यह क्रम यदि इसी तरह चलता रहे तो ज़रा सोचिए हम हमारे समाज और देश को किस दिशा में ले जा रहे होगें ? सवाल यह भी उठता है कि राजनीतिक दल यदि अपनी अपनी विचारधारा के अनुसार शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम से छेड़खानी ना करें तो फिर शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम निर्माण के मूलभूत आधार क्या हो ? और क्या उन आधारों पर सभी राजनीतिक दलों की साझी समझ हो सकती है ? यह भी कि क्या वो आधार मानव समाज और देश-दुनिया के लिए संगत होगें ? यदि हाँ तो किस प्रकारऔर क्या सभी राजनीतिक दल एसे साझे आधारों पर एकमत हो सकेगें ? यह सब सवाल है जिनका जवाब हम निरपेक्ष होकर हमारे भारतीय संविधान में  ढूढ़ना चाहे तो मिल जाएगा.
यदि हम संवैधाननिक मूल्यों को शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम की समीक्षा का आधार बनाएँ तो मेरा दावा है कि कोई भी राज्य और वहाँ का शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम इस मामले में संपूर्ण कसौटी पर खरा नही उतरेगा जोकि हमारे देश और समाज के लिए काफ़ी चिंताजनक स्थिति है.