Monday, January 16, 2017

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मायने- नवलकिशोर सोनी

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मायने.
नवलकिशोर सोनी
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मायनों पर अनेक विद्वानों द्वारा विचार व्यक्त किये गए है. किसी ने इसे बच्चे के सीखने के स्तर में सुधार से जोड़कर देखा है तो किसी ने सम्पूर्ण विद्यालय के माहौल एवं सुविधाओ  के साथ.उदहारण के लिए स्कूल में शिक्षक-बालक सम्बन्ध कैसे हैं, पढ़ाने के तरीके कैसे हैं ,स्कूल में कमरे कितने है , पीने का पानी है या नहीं, लड़के –लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय बना है या नहीं इत्यादि. आज कल निजी विद्यालयों द्वारा किये जा रहे प्रचार प्रसार को भी गुणवत्ता से जोड़कर देखा जाने लगा है. मसलन किसी  निजी विद्यालय के पास कितना बड़ा भवन है ? है तो उसका रंग-रोगन कैसा है ? स्कूल बस कितनी है ? जुते-मौजे, टाई-बैल्ट इत्यादि का रंग कैसा है ? यह सब ऐसी बातें हैं जो शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर भ्रम की स्थिति बना देती है. आज बाजारवाद भी शिक्षा पर हावी है . जो स्कूल जितना अच्छा विज्ञापन कर पाता है या कहें जितना मँहगा अपनी शिक्षा को बेच पाता है वह अच्छा स्कूल माना जाता है .ऐसे विद्यालयों ने शिक्षा को प्रतिस्पर्धा और विज्ञापन की विषयवस्तु बनाकर रख दिया है.
एक प्रशिक्षण में मैंने देखा कि शिक्षा की गुणवत्ता को बाजार से खरीदी गई अच्छी चाय, अच्छी मिठाई इत्यादि से जोड़ कर बताया जा रहा था. मसलन आपने ग्राहक के रूप में जो पैसा दिया है उसके एवज में आपको उसका उतना लाभ मिला या नहीं ? या आपको संतुष्टि मिली या नहीं ? इस सन्दर्भ में हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करें तो इसका ग्राहक किसे माना जाये ? किसकी संतुष्टि को देखा जाये ? बच्चे की संतुष्टि या बच्चे के माता-पिता की संतुष्टि, या फिर सरकार की संतुष्टि जो बच्चों को राज आज्ञा का पालन करना सिखाती है. जाहिर सी बात है इन सबकी संतुष्टि का स्तर अलग-अलग होगा.
अब सवाल यह उठता है कि फिर हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा किसे कहें ? यहाँ एक बात गौर करने लायक है और वह है ‘गुणवत्तापूर्ण’ शब्द. यानि यह शब्द हमें शिक्षा की विशेषता बताता है अर्थात  शिक्षा में गुणवत्ता किसे कहेंगे ? शिक्षा में गुणवत्ता को समझने के लिए जाहिर सी बात है कि हमें शिक्षा की अवधारणा को समझना होगा. शिक्षा की अवधारणा में मुख्य रूप से तीन बातें शामिल है पहली बच्चे, दूसरी अध्यापक और तीसरी विषयवस्तु जो हम बच्चों को सिखाना चाहते है. जब हम कहते है कि किसी बच्चे के निर्माण में शिक्षा का क्या योगदान रहा है तो हम यह पूछ रहे होते है कि आखिर उसने क्या सीखा ? कहने का मतलब है शिक्षा की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि आखिर बच्चे ने क्या सीखा और हम उसे क्या सीखाना चाहते थे ? और जो सीखाना चाहते थे उसका चुनाव हमने कैसे किया ? इस चुनाव के आधार क्या थे ? इन सब सवालों के जवाब हमें इस बात से मिलते  है कि क्या शिक्षा का कोई सामाजिक सन्दर्भ भी होता है या फिर शिक्षा किसी शून्य या निर्वात में चलने वाली अलग-थलग गतिविधि है ? चूँकि बच्चे और शिक्षक दोनों किसी समाज का हिस्सा होते है और शिक्षा की विषयवस्तु के रूप में जो भी मूल्य, क्षमताएँ और ज्ञान का चुनाव किया जाता है वे सब उस समाज में उपलब्ध ज्ञान-भण्डार का ही हिस्सा होते हैं. अत: हम चौथी चीज समाज को जोड़ सकते है. अब सवाल यह है कि हम किस प्रकार का समाज चाहते हैं ? समाज की हमारी धारणा क्या है ? और क्या यह धारणा मानव स्वाभाव और उसकी मूलभूत प्रवृतियों पर निर्भर करती है ? इस धारणा के आधार पर ही हमारे मूल्य और मान्यताएँ तय होती है. शिक्षा के लक्ष्य और उद्देश्य तय होते है. शिक्षाक्रम और पाठ्य क्रम का निर्माण होता है. शिक्षण विधियाँ तय होती है.
अब यदि हम थोड़ी देर के लिए कल्पना करें निरंकुश शासन या राजतन्त्र वाले समाज की तो हमारे मूल्य और मान्यताएँ भी इसी प्रकार की होनी चाहिए जिसमें ऐसे नागरिक पैदा किये जाये जो सोचने-समझने वाले न हो, सवाल उठाने वाले न हो, जैसा कहा जाये वैसा करने वाले हो..........और यदि हम मनुष्य के स्वभाव जैसे कि उसके पास भाषा है , वह बोलना जानता है, सोचना जानता है, चिंतन करना जानता है, अपने लिए बेहतर जीवन की कल्पना कर सकता है इत्यादि. तो ऐसे समाज की कल्पना करेंगे जहाँ मनुष्य को अपनी बात रखने के बराबरी के अवसर मिले, अपने आपको पोषित-पल्लवित करने के अवसर मिले तो ऐसा किस शासन व्यवस्था में संभव हो पायेगा यह देखना होगा. और यदि वह राजतन्त्र न होकर संवैधानिक लोकतंत्र है तो फिर समता, न्याय, स्वतंत्रता, बराबरी, तदानुभूति, लैंगिक समानता जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने वाली शिक्षा की रुपरेखा बनानी होगी.
उक्त विवेचना के आधार पर हम शिक्षा  की गुणवत्ता को इन चार पहलुओं से समझ सकते है – पहला वांछित समाज की धारणा क्या है ? या हम किस प्रकार का समाज चाहते है और इस वांछित समाज के निर्माण के लिए हमें एक खास प्रकार के मूल्यों से युक्त शिक्षा की व्यवस्था का निर्माण करना होगा. जैसे समता, न्याय, ईमानदारी, तदानुभूति, सत्यनिष्ठा, लैंगिक समानता, विवेकशीलता इत्यादि. और फिर विद्यालय के पूरे वातावरण और व्यवस्थाओं में इन मूल्यों की झलक दिखाई देती हो. दूसरा क्षमताओं के रूप में  जैसे खोज करने की क्षमता अर्थात जाँच-पड़ताल के उचित तरीके चुनकर उनका सटीक उपयोग कर पाना,  अर्जित क्षमताओं और ज्ञान का  आगे सीखने में उपयोग कर पाना, आवश्यकतानुसार समस्या समाधान में काम में ले पाना आदि और तीसरा सीखे गए ज्ञान की मात्रा के रूप में. यहाँ ज्ञान शब्द का उपयोग हम व्यापक रूप में कर रहे है जिसमें जानकारी, सूचनाओं, अनुभवों एवं दक्षताओं सभी को शामिल कर रहे  हैं । ज्ञान का चुनाव भी हम किस प्रकार का समाज चाहते है हमारी इस धारणा पर ही निर्भर करेगा. अर्जित ज्ञान की मात्रा एवं सीखने की क्षमताओं में सीधा सम्बन्ध है. जितना ज्ञान बढ़ेगा उतनी ही क्षमताएँ भी बढ़ेंगी और जितनी क्षमताएं बढ़ेगी उतना ही ज्ञान भी बढेगा.
चौथा बच्चों को पढ़ना-लिखना सीखाने के तरीके या शिक्षण विधियाँ. यह शिक्षण विधियाँ इस प्रकार की हो जो बच्चों में वांछित समाज के लिए जरुरी मूल्यों का विकास कर सकें. तार्किक सोच का विकास कर सके, वैज्ञानिक नजरिया विकसित कर सकें, कम लागत, कम खर्च पर आधारित हो तथा बच्चों में सीखने की गति को स्तरानुसार बढ़ा सके. यदि हम समतावादी, न्यायपूर्ण और प्रजातान्त्रिक समाज का निर्माण करना चाहते है तो शिक्षण विधियाँ ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों में तार्किक समझ का विकास करने के साथ-साथ जाति, धर्म-पंथ, वर्ग इत्यादि से ऊपर उठकर सोचने में  सक्षम बना सकें. विचार और कर्म के लिए आत्मनिर्भर बना सके. इस प्रकार की शिक्षा को हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कह सकते हैं. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा 2005 ने भी शिक्षा के मार्गदर्शक सिद्धांतों के परिपेक्ष्य में निम्न शैक्षिक उद्देश्यों का जिक्र किया है जिनका उल्लेख यहाँ करना जरुरी लगता है-
“बच्चों में लोकतंत्र, समानता, न्याय, स्वतंत्रता, परोपकार, धर्मनिरपेक्षता, मानव गरिमा व अधिकार तथा दूसरों के प्रति आदर जैसे मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता. शिक्षा का उद्देश्य कारण और समझ पर आधारित इन्हीं मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्माण करना होना चाहिए. इसलिए पाठ्यचर्या में स्कूलों के लिए वह गुंजाईश जरुर होनी चाहिए ताकि वह संवाद एवं विमर्श के लिए जगह पैदा करते हुए बच्चों में इस तरह की प्रतिबद्धता का निर्माण कर सके. विचार तथा कर्म की आज़ादी, स्वतन्त्र तथा सामूहिक रूप से सावधानी पूर्वक विचार किये गए मूल्य-निर्धारित निर्णय लेने की क्षमता की तरफ इशारा करते हैं. ज्ञान और दुनिया की समझ के साथ दूसरें लोगों की भावनाओं व कल्याण के प्रति संवेदनशीलता को मूल्यों के प्रति तार्किक प्रतिबद्धता का आधार होना चाहिए. सीखने के लिए सीखना, जो सीखा है उसे छोड़ने की और दुबारा सीखने की तत्परता, नयी परिस्थितियों के प्रति लचीले व रचनात्मक तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया पर जोर डालने की आवश्यकता है. जीवन में चुनाव व लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में भागीदारी समाज में विभिन्न प्रकार से योगदान देने की सामर्थ्य पर निर्भर है. यही वजह है कि शिक्षा को कम करने, आर्थिक प्रक्रियाओं व सामाजिक बदलाव में हिस्सा लेने की सामर्थ्य को विकसित करना चाहिए. इसके लिए काम का शिक्षा से जुड़ाव अपरिहार्य है.कौशलों और प्रवृत्तियों के लिहाज से काम से जुड़े अनुभव इस तरह पर्याप्त और व्यापक होने चाहिए कि वे सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं की समझ पैदा कर सकें और ऐसी मानसिक संरचना विकसित करने में मदद करें जो सहकारिता की भावना से दूसरों के साथ मिलकर काम करने को प्रोत्साहन दे.केवल कार्य ही सामाजिक मनोवृति की रचना कर सकता है.सौन्दर्य व कला के विभिन्न रूपों को समझना व उसका आनन्द उठाना मानव जीवन का अभिन्न अंग है. कला, साहित्य और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में सृजनात्मकता का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध हो. बच्चे की रचनात्मक अभिव्यक्ति और सौन्दर्यात्मक आस्वादन की क्षमता के विस्तार के लिए साधन और अवसर मुहैया कराना शिक्षा का अनिवार्य कर्तव्य है.आज जबकि बाजार की शक्तियों में मतों एवं अभिरुचियों को प्रभावित करने की गुंजाइश ज्यादा है. सौन्दर्य की समझ व रचनात्मकता के लिए शिक्षा की महत्ता और भी बढ़ गई है. विद्यार्थियों को सौन्दर्य के विभिन्न रूपों को समझने व उनका विवेचन करने में समर्थ बनाने का प्रयास होना चाहिए. बहरहाल, हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हम मनोरंजन व सौन्दर्य के उन रूढ़िबद्ध रूपों को प्रोत्साहित ना करें जो महिलाओं व विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ झेल रहे व्यक्तियों को अपमानित करते हों.”
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उक्त व्याख्या में हमने  विद्यालय भवन, शिक्षक का प्रशिक्षण, शिक्षण सामग्री, शाला से पास होने वाले बच्चों का प्रतिशत, आदि का कोई जिक्र नहीं किया है, जबकि शिक्षा की गुणवत्ता में आजकल इन चीजों को मुख्य माना जाता है. इसका यह आशय नहीं है कि विद्यालय भवन, शिक्षण सामग्री और संसाधन जरूरी नहीं हैं, बल्कि यह है कि वे शिक्षा में गुणवत्ता प्राप्ति के साधन भर हैं, असली मकसद नहीं। अतः उनसे सन्तुष्ट नहीं हुआ जा सकता। इसी तरह शिक्षण सामग्री की उपलब्धता, भौतिक संसाधन, अकादमिक संबलन, सभी बच्चों का विद्यालय आना, पांचवीं पास करना, शिक्षक-छात्र अनुपात, आदि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सभी बच्चों को मुहैया करवाने की आवश्यक शर्तें मात्र हैं।
आज हमारे शिक्षा तंत्र की एक बड़ी कमजोरी यह है कि शिक्षा में  गुणवत्ता के नाम पर उनकी नजर आवश्यक सामग्री, संसाधन एवं विद्यालय-भवन तक ही जा पाती है। ज्यादा से ज्यादा परीक्षा में पास बच्चों के प्रतिशत या बच्चों के अंकों के प्रतिशत तक जाती है। शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में हमें इस धारणा को बदलने की जरुरत है.


Thursday, August 11, 2016

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2016 : कुछ गंभीर सवाल और मुद्दे. नवलकिशोर सोनी


शिक्षा की बेहतरी के लिए नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने एवम् राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2016 बनाने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 31 अक्टूबर 2015 को एक पाँच सदस्यीय समिति का गठन किया गया. इस समिति की अध्यक्षता अवकाश प्राप्त कैबिनेट सचिव टी. एस. आर. सुब्रमनयन ने की. इस समिति ने 30 अप्रैल 2016 को एक रपट अपनी सिफारिशों के साथ मंत्रालय को सौंपी. भारत सरकार ने इस रपट के आधार पर आम जनता के लिए एक दस्तावेज़ जारी किया जिसका नाम था " सम इनपुट्स फॉर ड्राफ्ट नेशनल एजुकेशन पॉलिसी-2016. इस दस्तावेज़ को यदि हम गौर से पढ़ें तो इसमें वर्तमान सरकार की मंशा साफ नज़र आती है. उदाहरण के लिए यदि आप इस दस्तावेज़ की आरम्भिक पृष्टभूमि को पढ़ें तो पाएँगे कि इस दस्तावेज़ के माध्यम से सरकार यह संदेश देती है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था विश्व की सर्वश्रेष्ट शिक्षा व्यवस्थाओं में से एक थी और विश्व के सर्वश्रेष्ट विश्व विद्यालय भी हमारे देश में ही थे. यह ज़िंगोईज़्म बताता है कि जब हम शिक्षा के मामले में  विश्व में सर्वश्रेष्ट थे और है तो हमें फिर नई शिक्षा नीति बनाने और इस बारे में सोचने की ज़रूरत ही क्या है ? सरकार की मंशा को समझने के लिए एक और उदाहरण लिया जा सकता है. मसलन नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने के लिए जो समिति बनाई गई है, उसमें एन. सी. .आर. टी के एक पूर्व निदेशक के अलावा अन्य चार सेवा-निवृत नौकरशाह है. इस समिति में शिक्षा के बारे में गहन चिंतन और अनुभव रखने वाले किसी शिक्षाविद् को शामिल न किए जाना अपने आप में सरकार की मंशा पर सवाल उठता है ?
इस दस्तावेज़ में व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास को लेकर जो चिंता दिखाई गयी गई है और भावी ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है वो 1986 की शिक्षा नीति में भी दिया गया था. तो फिर इसमें नया क्या बताया गया ? अपितु यह दस्तावेज़ सरकार के एक घोषणा पत्र की तरह नज़र आता है. इस दस्तावेज़ में शिक्षा में बदलाव की ज़रूरत क्यों है और वह किस तरह की भावी पीढ़ी का निर्माण करेगी तथा उसके आधार क्या होंगे का ज़िक्र स्पष्ट रूप से कहीं पढ़ने को नही मिलता. किस तरह के भावी समाज की संकल्पना को लेकर हम शिक्षा का ताना बाना बुनना चाहते है इसकी झलक भी इस दस्तावेज़ में स्पष्ट नज़र नही आती. यह दस्तावेज़ जहाँ शिक्षा के व्यावसायीकरण को ठीक नहीं समझता वहीं शिक्षा को 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' की श्रेणी में डालकर शिक्षा के निजीकरण को प्रोत्साहन देता है. यह सरकार की इस मंशा से भी जाहिर होता है कि सरकार उच्च शिक्षा के संस्थानों को अनुदान उनके द्वारा किए गये प्रदर्शन के आधार पर देगी. अब यह कहीं भी स्पष्ट नही है कि प्रदर्शन के आधार क्या होगें ? दस्तावेज़ यह भी कहता है कि नये उच्च शैक्षिक संस्थान नहीं खोले जाएगें क्योंकि इन पर सरकार को अनावश्यक निवेश करना पड़ता है. अब यदि सरकार नये संस्थान नहीं खोलेगी तो शिक्षा की माँग को वह कैसे पूरा करेगी ? दस्तावेज़ में यह भी कहा गया है कि अलाभकारी विद्यालयों को पहचान कर विद्यालयों का विलय किया जाएगा परन्तु दस्तावेज़ हमें कही भी यह नही बताता कि किसी विद्यालय को लाभकारी या अलाभकारी कहने के आधार क्या होंगे ? इन विद्यालयों को विलय करने पर 'बच्चों की पहुँच में शिक्षा का क्या होगा ? क्या प्रत्येक बच्चे को उसके घर के नज़दीक या पड़ोस में शिक्षा सुलभ हो पाएगी ? उक्त सवालों के संदर्भों में यदि हम इस दस्तावेज़ का विश्लेषण करें तो स्पष्ट है कि सरकार की मंशा शिक्षा को बाजार के हवाले करने की है. सरकार  शिक्षा के सार्वजनीकरण के  अपने दायित्व से भागना चाहती है.
विद्यालय छोड़ चुके बालक-बालिकाओं के लिए मुक्त विद्यालयों की अवधारणा का विस्तार करना सरकार की गंभीरता पर प्रश्न उठाता है. क्या सरकार ने कभी सोचा है कि आख़िर विद्यालय जाने की उम्र में बच्चे विद्यालय क्यों छोड़ देते हैं ? अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएँ और विद्यालय चलाकर सरकार समान स्कूल व्यवस्था की संकल्पना को लागू करने से पहले ही समाप्त करने का मानस बना चुकी है. यह इस दस्तावेज़ से स्पष्ट पता चलता है. आज हमारे देश में जिस तरह से निजी विद्यालयों के रूप में शिक्षा की दुकानें खुल रही है और बच्चों-अभिभावकों का शोषण हो रहा है उससे निजात दिलाने के बजाय यह दस्तावेज़ इस सबको प्रोत्साहन देता दिखाई देता है.
एक और खास बात यह है कि आज हमारे समाज को न्याय, समता, बराबरी, सहिष्णुता जैसे संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने और विकसित करने वाली शिक्षा नीति की आवश्यकता है परन्तु यह बहुत गंभीर और चिंता का विषय है कि इस दिशा में यह दस्तावेज़ कोई ठोस पहल करने का विकल्प सुझाता नज़र नही आता.


Thursday, June 23, 2016

पाठ्यक्रम और राजनीतिक दल- नवलकिशोर सोनी

राजस्थान की वर्तमान पाठ्य पुस्तकों को लेकर यों तो अब तक मेरे विद्वान साथियों ने काफ़ी कुछ लिखा  हैकुछ ने जेंडर की दृष्टि से तो कुछ ने वैज्ञानिक और इतिहासिक दृष्टि से. हम सभी यह बात भली-भाँति जानते है कि शिक्षाक्र्म और पाठ्यक्रम  के साथ छेड़खानी करना सभी राजनीतिक दलों का प्रमुख एजेंडा होता है. इस मामले में ना भारतीय जनता पार्टी पीछे है और ना ही कॉंग्रेस और ना ही अन्य वामपंथी दल. आप इस बात का उदाहरण सभी राज्यों और उन राज्यों में मौजूद सरकारों की विचारधारा  के साथ वर्तमान पाठ्यक्रम  को तुलना करके देख सकते हैं.
राज मार्गों, सरकारी भवनों इत्यादि के नामकरण अपनी-अपनी राजनीतिक  विचारधारा के समर्थक या प्रतिपादक व्यक्तियों के नाम पर रखना या बदलना राजनीतिक दलों का बहुत पुराना शगल है.
अब सवाल यह है कि क्या इस सब कार्यकलाप को यह कहकर जायज़ ठहराया जा सकता है कि जो भी दल सत्ता में आएगा वो तो शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम से छेड़खानी करेगा ही. और चूँकी सभी दल एसा करते है तो इसमें हैरानी की बात ही क्या है ?
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि सभी राजनीतिक दल शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम से छेड़खानी करते हैं तो बाकी को भी [ जिनको सत्ता में आने का मौका मिला है यह हक़ होना चाहिए] और यह क्रम यदि इसी तरह चलता रहे तो ज़रा सोचिए हम हमारे समाज और देश को किस दिशा में ले जा रहे होगें ? सवाल यह भी उठता है कि राजनीतिक दल यदि अपनी अपनी विचारधारा के अनुसार शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम से छेड़खानी ना करें तो फिर शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम निर्माण के मूलभूत आधार क्या हो ? और क्या उन आधारों पर सभी राजनीतिक दलों की साझी समझ हो सकती है ? यह भी कि क्या वो आधार मानव समाज और देश-दुनिया के लिए संगत होगें ? यदि हाँ तो किस प्रकारऔर क्या सभी राजनीतिक दल एसे साझे आधारों पर एकमत हो सकेगें ? यह सब सवाल है जिनका जवाब हम निरपेक्ष होकर हमारे भारतीय संविधान में  ढूढ़ना चाहे तो मिल जाएगा.
यदि हम संवैधाननिक मूल्यों को शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम की समीक्षा का आधार बनाएँ तो मेरा दावा है कि कोई भी राज्य और वहाँ का शिक्षाक्रम और पाठ्यक्रम इस मामले में संपूर्ण कसौटी पर खरा नही उतरेगा जोकि हमारे देश और समाज के लिए काफ़ी चिंताजनक स्थिति है.