गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मायने.
नवलकिशोर सोनी
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मायनों पर अनेक विद्वानों द्वारा विचार व्यक्त किये
गए है. किसी ने इसे बच्चे के सीखने के स्तर में सुधार से जोड़कर देखा है तो किसी ने
सम्पूर्ण विद्यालय के माहौल एवं सुविधाओ
के साथ.उदहारण के लिए स्कूल में शिक्षक-बालक सम्बन्ध कैसे हैं, पढ़ाने के
तरीके कैसे हैं ,स्कूल में कमरे कितने है , पीने का पानी है या नहीं, लड़के
–लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय बना है या नहीं इत्यादि. आज कल निजी विद्यालयों
द्वारा किये जा रहे प्रचार प्रसार को भी गुणवत्ता से जोड़कर देखा जाने लगा है. मसलन
किसी निजी विद्यालय के पास कितना बड़ा भवन
है ? है तो उसका रंग-रोगन कैसा है ? स्कूल बस कितनी है ? जुते-मौजे, टाई-बैल्ट
इत्यादि का रंग कैसा है ? यह सब ऐसी बातें हैं जो शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर भ्रम
की स्थिति बना देती है. आज बाजारवाद भी शिक्षा पर हावी है . जो स्कूल जितना अच्छा
विज्ञापन कर पाता है या कहें जितना मँहगा अपनी शिक्षा को बेच पाता है वह अच्छा
स्कूल माना जाता है .ऐसे विद्यालयों ने शिक्षा को प्रतिस्पर्धा और विज्ञापन की
विषयवस्तु बनाकर रख दिया है.
एक प्रशिक्षण में मैंने देखा कि शिक्षा की गुणवत्ता को बाजार से खरीदी गई
अच्छी चाय, अच्छी मिठाई इत्यादि से जोड़ कर बताया जा रहा था. मसलन आपने ग्राहक के
रूप में जो पैसा दिया है उसके एवज में आपको उसका उतना लाभ मिला या नहीं ? या आपको
संतुष्टि मिली या नहीं ? इस सन्दर्भ में हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करें तो इसका
ग्राहक किसे माना जाये ? किसकी संतुष्टि को देखा जाये ? बच्चे की संतुष्टि या
बच्चे के माता-पिता की संतुष्टि, या फिर सरकार की संतुष्टि जो बच्चों को राज आज्ञा
का पालन करना सिखाती है. जाहिर सी बात है इन सबकी संतुष्टि का स्तर अलग-अलग होगा.
अब सवाल यह उठता
है कि फिर हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा किसे कहें ? यहाँ एक बात गौर
करने लायक है और वह है ‘गुणवत्तापूर्ण’ शब्द. यानि यह शब्द हमें शिक्षा की विशेषता
बताता है अर्थात शिक्षा में
गुणवत्ता किसे कहेंगे ? शिक्षा में
गुणवत्ता को समझने के लिए जाहिर सी बात है कि हमें शिक्षा की अवधारणा को समझना
होगा. शिक्षा की अवधारणा में मुख्य रूप से तीन बातें शामिल है पहली बच्चे, दूसरी
अध्यापक और तीसरी विषयवस्तु जो हम बच्चों को सिखाना चाहते है. जब हम कहते है कि
किसी बच्चे के निर्माण में शिक्षा का क्या योगदान रहा है तो हम यह पूछ रहे होते है
कि आखिर उसने क्या सीखा ? कहने का मतलब है शिक्षा की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर
करती है कि आखिर बच्चे ने क्या सीखा और हम उसे क्या सीखाना चाहते थे ? और जो
सीखाना चाहते थे उसका चुनाव हमने कैसे किया ? इस चुनाव के आधार क्या थे ? इन सब
सवालों के जवाब हमें इस बात से मिलते है
कि क्या शिक्षा का कोई सामाजिक सन्दर्भ भी होता है या फिर शिक्षा किसी शून्य या
निर्वात में चलने वाली अलग-थलग गतिविधि है ? चूँकि बच्चे और शिक्षक दोनों किसी
समाज का हिस्सा होते है और शिक्षा की विषयवस्तु के रूप में जो भी मूल्य, क्षमताएँ
और ज्ञान का चुनाव किया जाता है वे सब उस समाज में उपलब्ध ज्ञान-भण्डार का ही
हिस्सा होते हैं. अत: हम चौथी चीज समाज को जोड़ सकते है. अब सवाल यह है कि हम किस
प्रकार का समाज चाहते हैं ? समाज की हमारी धारणा क्या है ? और क्या यह धारणा मानव
स्वाभाव और उसकी मूलभूत प्रवृतियों पर निर्भर करती है ? इस धारणा के आधार पर ही
हमारे मूल्य और मान्यताएँ तय होती है. शिक्षा के लक्ष्य और उद्देश्य तय होते है. शिक्षाक्रम
और पाठ्य क्रम का निर्माण होता है. शिक्षण विधियाँ तय होती है.
अब यदि हम थोड़ी
देर के लिए कल्पना करें निरंकुश शासन या राजतन्त्र वाले समाज की तो हमारे मूल्य और
मान्यताएँ भी इसी प्रकार की होनी चाहिए जिसमें ऐसे नागरिक पैदा किये जाये जो
सोचने-समझने वाले न हो, सवाल उठाने वाले न हो, जैसा कहा जाये वैसा करने वाले हो..........और
यदि हम मनुष्य के स्वभाव जैसे कि उसके पास भाषा है , वह बोलना जानता है, सोचना
जानता है, चिंतन करना जानता है, अपने लिए बेहतर जीवन की कल्पना कर सकता है
इत्यादि. तो ऐसे समाज की कल्पना करेंगे जहाँ मनुष्य को अपनी बात रखने के बराबरी के
अवसर मिले, अपने आपको पोषित-पल्लवित करने के अवसर मिले तो ऐसा किस शासन व्यवस्था
में संभव हो पायेगा यह देखना होगा. और यदि वह राजतन्त्र न होकर संवैधानिक लोकतंत्र
है तो फिर समता, न्याय, स्वतंत्रता, बराबरी, तदानुभूति, लैंगिक समानता जैसे
मूल्यों को बढ़ावा देने वाली शिक्षा की रुपरेखा बनानी होगी.
उक्त विवेचना के
आधार पर हम शिक्षा की गुणवत्ता को इन चार
पहलुओं से समझ सकते है – पहला वांछित समाज की
धारणा क्या है ? या हम किस प्रकार का समाज चाहते है और इस वांछित
समाज के निर्माण के लिए हमें एक खास प्रकार के मूल्यों से युक्त शिक्षा की
व्यवस्था का निर्माण करना होगा. जैसे समता,
न्याय, ईमानदारी, तदानुभूति, सत्यनिष्ठा, लैंगिक समानता, विवेकशीलता इत्यादि. और फिर
विद्यालय के पूरे वातावरण और व्यवस्थाओं में इन मूल्यों की झलक दिखाई देती हो. दूसरा
क्षमताओं के रूप में जैसे खोज करने की
क्षमता अर्थात जाँच-पड़ताल के उचित तरीके चुनकर उनका सटीक उपयोग कर पाना, अर्जित क्षमताओं और ज्ञान का आगे सीखने में उपयोग कर पाना, आवश्यकतानुसार
समस्या समाधान में काम में ले पाना आदि और तीसरा सीखे
गए ज्ञान की मात्रा के रूप में. यहाँ ज्ञान शब्द का उपयोग हम व्यापक रूप में कर रहे
है जिसमें जानकारी, सूचनाओं, अनुभवों एवं दक्षताओं सभी को शामिल कर रहे हैं । ज्ञान का चुनाव भी हम किस प्रकार का समाज
चाहते है हमारी इस धारणा पर ही निर्भर करेगा. अर्जित ज्ञान की मात्रा एवं सीखने की
क्षमताओं में सीधा सम्बन्ध है. जितना ज्ञान बढ़ेगा उतनी ही क्षमताएँ भी बढ़ेंगी और
जितनी क्षमताएं बढ़ेगी उतना ही ज्ञान भी बढेगा.
चौथा बच्चों को पढ़ना-लिखना सीखाने के तरीके या
शिक्षण विधियाँ. यह शिक्षण विधियाँ इस प्रकार की हो जो बच्चों में वांछित समाज के
लिए जरुरी मूल्यों का विकास कर सकें. तार्किक सोच का विकास कर सके, वैज्ञानिक
नजरिया विकसित कर सकें, कम लागत, कम खर्च पर आधारित हो तथा बच्चों में सीखने की
गति को स्तरानुसार बढ़ा सके. यदि हम समतावादी, न्यायपूर्ण और प्रजातान्त्रिक समाज
का निर्माण करना चाहते है तो शिक्षण विधियाँ ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों में तार्किक
समझ का विकास करने के साथ-साथ जाति, धर्म-पंथ, वर्ग इत्यादि से ऊपर उठकर सोचने
में सक्षम बना सकें. विचार और कर्म के लिए
आत्मनिर्भर बना सके. इस प्रकार की शिक्षा को हम गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा कह सकते हैं. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा 2005 ने भी शिक्षा के
मार्गदर्शक सिद्धांतों के परिपेक्ष्य में निम्न शैक्षिक उद्देश्यों का जिक्र किया
है जिनका उल्लेख यहाँ करना जरुरी लगता है-
“बच्चों में लोकतंत्र, समानता, न्याय,
स्वतंत्रता, परोपकार, धर्मनिरपेक्षता, मानव गरिमा व अधिकार तथा दूसरों के प्रति
आदर जैसे मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता. शिक्षा का उद्देश्य कारण और समझ पर आधारित
इन्हीं मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्माण करना होना चाहिए. इसलिए
पाठ्यचर्या में स्कूलों के लिए वह गुंजाईश जरुर होनी चाहिए ताकि वह संवाद एवं
विमर्श के लिए जगह पैदा करते हुए बच्चों में इस तरह की प्रतिबद्धता का निर्माण कर
सके. विचार तथा कर्म की आज़ादी, स्वतन्त्र तथा सामूहिक रूप से सावधानी पूर्वक विचार
किये गए मूल्य-निर्धारित निर्णय लेने की क्षमता की तरफ इशारा करते हैं. ज्ञान और
दुनिया की समझ के साथ दूसरें लोगों की भावनाओं व कल्याण के प्रति संवेदनशीलता को
मूल्यों के प्रति तार्किक प्रतिबद्धता का आधार होना चाहिए. सीखने के लिए सीखना, जो
सीखा है उसे छोड़ने की और दुबारा सीखने की तत्परता, नयी परिस्थितियों के प्रति
लचीले व रचनात्मक तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया पर
जोर डालने की आवश्यकता है. जीवन में चुनाव व लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में
भागीदारी समाज में विभिन्न प्रकार से योगदान देने की सामर्थ्य पर निर्भर है. यही
वजह है कि शिक्षा को कम करने, आर्थिक प्रक्रियाओं व सामाजिक बदलाव में हिस्सा लेने
की सामर्थ्य को विकसित करना चाहिए. इसके लिए काम का शिक्षा से जुड़ाव अपरिहार्य
है.कौशलों और प्रवृत्तियों के लिहाज से काम से जुड़े अनुभव इस तरह पर्याप्त और
व्यापक होने चाहिए कि वे सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं की समझ पैदा कर सकें और ऐसी
मानसिक संरचना विकसित करने में मदद करें जो सहकारिता की भावना से दूसरों के साथ
मिलकर काम करने को प्रोत्साहन दे.केवल कार्य ही सामाजिक मनोवृति की रचना कर सकता
है.सौन्दर्य व कला के विभिन्न रूपों को समझना व उसका आनन्द उठाना मानव जीवन का
अभिन्न अंग है. कला, साहित्य और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में सृजनात्मकता का एक
दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध हो. बच्चे की रचनात्मक अभिव्यक्ति और सौन्दर्यात्मक
आस्वादन की क्षमता के विस्तार के लिए साधन और अवसर मुहैया कराना शिक्षा का
अनिवार्य कर्तव्य है.आज जबकि बाजार की शक्तियों में मतों एवं अभिरुचियों को
प्रभावित करने की गुंजाइश ज्यादा है. सौन्दर्य की समझ व रचनात्मकता के लिए शिक्षा
की महत्ता और भी बढ़ गई है. विद्यार्थियों को सौन्दर्य के विभिन्न रूपों को समझने व
उनका विवेचन करने में समर्थ बनाने का प्रयास होना चाहिए. बहरहाल, हमें यह
सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि हम मनोरंजन व सौन्दर्य के उन रूढ़िबद्ध रूपों को
प्रोत्साहित ना करें जो महिलाओं व विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ झेल रहे व्यक्तियों
को अपमानित करते हों.”
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उक्त व्याख्या में हमने
विद्यालय भवन, शिक्षक का प्रशिक्षण, शिक्षण सामग्री, शाला से पास होने
वाले बच्चों का प्रतिशत,
आदि
का कोई जिक्र नहीं किया है, जबकि शिक्षा की गुणवत्ता में आजकल इन चीजों को
मुख्य माना जाता है. इसका यह आशय नहीं है कि विद्यालय भवन, शिक्षण सामग्री और संसाधन
जरूरी नहीं हैं,
बल्कि यह है कि वे शिक्षा में गुणवत्ता प्राप्ति के साधन भर हैं, असली मकसद नहीं। अतः
उनसे सन्तुष्ट नहीं हुआ जा सकता। इसी तरह शिक्षण सामग्री की उपलब्धता, भौतिक संसाधन, अकादमिक संबलन, सभी बच्चों का विद्यालय
आना,
पांचवीं पास करना,
शिक्षक-छात्र अनुपात, आदि गुणवत्तापूर्ण
शिक्षा
सभी बच्चों को मुहैया करवाने की आवश्यक शर्तें मात्र हैं।
आज हमारे शिक्षा तंत्र की एक बड़ी कमजोरी यह है
कि शिक्षा
में गुणवत्ता के नाम पर उनकी नजर
आवश्यक सामग्री,
संसाधन एवं विद्यालय-भवन तक ही जा पाती है। ज्यादा से ज्यादा परीक्षा में पास
बच्चों के प्रतिशत या बच्चों के अंकों के प्रतिशत तक जाती है। शिक्षा की
गुणवत्ता के बारे में हमें इस धारणा को बदलने की जरुरत है.